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खाद्य सुरक्षा की चिंतनीय स्थिति

Mithilesh's Pen
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देश में अगर हर मामले का हल उच्चतम न्यायालय के आदेशों से ही निकले तो फिर समझना मुश्किल नहीं है कि देश में प्रशासनिक व्यवस्थाएं किस हद तक चरमरा गयी हैं. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा कि वह जवाब दाखिल कर बताए कि सभी राज्यों में समाज कल्याणकारी योजनाओं का स्टेट्स क्या है? क्या लोगों को जरूरत की चीजें मिल रही हैं? बैंक लोन और पानी की सुविधा को लेकर राज्य क्या कर रहे हैं? कभी-कभी प्रतीत होता है कि अगर देश की सुप्रीम कोर्ट विभिन्न मामलों पर सक्रीय रूख अख्तियार न करे तो, विभिन्न मुद्दों की सच्चाइयाँ दबी की दबी रह जाएं! इस बार भी सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लागू करने में कोताही बरतने पर गुजरात समेत कई राज्यों को कड़ी फटकार लगाई है. न केवल फटकार लगाई बल्कि बेहद सख्त टिप्पणी करते हुए उच्चतम न्यायालय ने पूछा है कि जिस क़ानून को देश की संसद ने बनाया है, उसे लागू क्यों नहीं किया जा रहा है. जस्टिस मदान बी लोकुर की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने गुजरात सरकार से यह तक पूछ डाला कि क्या गुजरात भारत का हिस्सा नहीं है? पहली बार में विश्लेषकों को यह टिप्पणी थोड़ी ज्यादा ही कड़ी लग सकती है, किन्तु हमें समझना होगा न्यायालय के मंतव्य को भी, जो सीधा-सीधा जनहित से तो जुड़ा ही है, साथ ही साथ कानून के पालन से भी जुड़ा हुआ है. शासन कर रहे राजनेताओं को यह सोचना चाहिए कि आखिर सुप्रीम कोर्ट ने यह क्यों कहा कि ‘क़ानून कहता है कि ये पूरे देश मे लागू होगा और गुजरात इसे लागू नहीं कर रहा है! कल कोई कह सकता है कि वो सीआरपीसी, आईपीसी जैसे क़ानूनों को लागू नहीं करेगा.” जाहिर है, यह सारी बातें इतनी गंभीर हैं जो पूरी की पूरी प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह उठाती हैं. सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने केंद्र सरकार को सूखा प्रभावित राज्यों में मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा जैसी कल्याण योजनाओं की वस्तुस्थिति के आंकड़े जुटाने के भी निर्देश दिए. इसके साथ साथ सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस मामले में 10 फ़रवरी तक हलफ़नामा दायर करने का आदेश भी दिया और इस मामले की अगली सुनवाई 12 फ़रवरी को करने का निर्णय लिया.

सुप्रीम कोर्ट ने 18 जनवरी को सरकार से इन कल्याण योजनाओं के बारे में केंद्र से सूचनाएं देने को कहा था ताकि पता लगाया जा सके कि सूखा प्रभावित इलाक़ों में न्यूनतम रोजगार और भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है या नहीं. खंडपीठ एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रही है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, गुजरात, ओडिशा, झारखंड, बिहार, हरियाणा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कई इलाक़े सूखे की चपेट में हैं और प्रशासन उन्हें पर्याप्त राहत मुहैया नहीं करा रहा है. जाहिर है कि समस्या अगर एक स्तर पर ही हो तो उसे अनदेखा भी कर दिया जाय, लेकिन संसद द्वारा लागू कानून की किस प्रकार से धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, यह बात समझ से बाहर हो चुकी है. इस पूरी लापरवाही या अनदेखापन का खामियाजा भुगतती है जनता और मुसीबत का पिटारा बढ़ता जाता है. बहुत आश्चर्य नहीं होता है कि एक तरफ हमारे गोदाम राशन से भरे रहते हैं तो दूसरी ओर जनता भूख से बेहाल हो जाती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गयी टिप्पणी से प्रशासनिक लापरवाही के साथ साथ राजनीतिक नेताओं को भी जवाबदेही बनेगी!  भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) और केन्द्रीय भंडारण निगम की गतिविधियां लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने की अवधारणा से प्रेरित हैं. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013, जो 5 जुलाई 2013 से लागू हुआ है, इसके तहत टीपीडीएस के अंतर्गत हकदार लाभार्थियों को अत्यधिक राजसहायता प्राप्त खाद्यान्न उपलब्ध कराना केंद्रीय सरकार तथा राज्य सरकारों की कानूनी बाध्यता है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत हकदार व्यक्तियों को राजसहायता प्राप्त दरों पर खाद्यान्नों की वास्तविक डिलीवरी अथवा आपूर्ति सुनिश्चिित करना राज्य सरकारों का दायित्व हो गया है. अब समझना मुश्किल नहीं है कि इतने स्पष्टीकरण के बावजूद अगर जनता समस्याओं से त्रस्त है तो कोर्ट की नाराजगी सौ फीसदी वाजिब है. हालाँकि, इस नाराजगी के बावजूद ज़मीनी हालात किस हद तक बदलेंगे, यह कहना अत्यंत मुश्किल है.

मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

Hindi new article by Mithilesh on food security bill and supreme court decision,

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