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दलाली, बेरोजगारी और भारतीय रेल

Mithilesh's Pen
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पिछले दिनों एनसीआर में एक प्लॉट का पावर ऑफ़ अटार्नी कराने की बात आयी तो कई दलालों से बात करने के बाद भी 28 हजार पर बात बनी. मुझे अंदाजा था कि इसमें कम से कम आधी फीस तो गवर्नमेंट को जाएगी ही, बाकी आधी दलालों की जेब में! जब हम सब-रजिस्ट्रार के ऑफिस में पहुंचे तो पूरी प्रक्रिया के दौरान सरकारी फीस जानकार मैं हैरान रह गया कि यह मात्र 1200 रूपये थी! बाकी 27,800 दलालों के नेक्सस की जेब में! जरा गौर कीजिये, यह पूरी की पूरी काली कमाई, जिस पर सरकार को कुछ भी तो नहीं मिला और जनता का उस पर से भरोसा उठा सो अलग! यह हाल, कमोबेश हर एक दफ्तर की ही है और इसलिए कभी-कभी इस बात पर बड़ी कोफ़्त होती है कि भारत में इतनी दलाली है कि सीधे-सादे काम भी समस्याग्रस्त हो जाते हैं! आश्चर्य नहीं कि एक फाइल पर सिग्नेचर करने भर के लिए आपको हज़ारों हरी और लाल पत्तियां पर्स से निकालनी पड़ती हैं. इसी सन्दर्भ में, आप तरीके से सोचें तो जिसको कहीं जाना होता है, वह व्यक्ति ही ट्रेन की टिकट खरीदता है… !! लेकिन नहीं! इस काम में मेट्रो शहरों की तो छोड़ दीजिये, टू टियर सिटीज को भी छोड़ दीजिये, जिला मुख्यालयों को भी छोड़ दीजिये, बल्कि कस्बे तक में आपको दलालों की दुकानें मिल जाएँगी, जो आपको रेलवे का कन्फर्म टिकट दिलाने का दावा करते हैं… और आश्चर्य देखिये, दिला भी देते हैं! समझने वाली बात है कि आखिर ऐसा क्या चमत्कार हो जाता है कि एक आम-यात्री को ऑनलाइन या टिकट-खिड़की पर नाक रगड़ने के बाद भी टिकट नहीं मिलता है, जबकि वही टिकट डबल प्राइस पर दलाल दिला देते हैं!

अगर इस एंगल को थोड़ा घुमाकर देखें तो भारत की बेरोजगारी से त्रस्त, पिछले दरवाजे से फैला यह एक बड़ा नेटवर्क है, जहाँ कोई नियम-कानून नहीं और जिसका-जितना हाथ बनता है, उतना वह अपने ग्राहक को काटता है. इस तरह के बड़े नेक्सस में बड़ी ट्रांजैक्शन होती है, जिस पर सरकार को टैक्स के रूप में एक रूपया नहीं मिलता है! ऐसा नहीं है कि इस तरह का नेक्सस सिर्फ रेलवे में ही हो, बल्कि हर एक और प्रत्येक सरकारी विभाग में डेढ़ गुना, दो गुना, दस गुना और कई जगहों पर तो हज़ार गुना तक कमीशन है, जो एक तरफ तो देश में बेरोजगारी की हालत बयां करती है तो दूसरी ओर जनता को अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक दबाव में लाती हैं. इससे भी बड़ी बात यह है कि हमारी व्यवस्था में इतनी बड़ी खामी का कोई स्थाई इलाज ढूँढा नहीं जा सका है. हाँ, कभी-कभार सरकारें कुछ न कुछ उपाय करती रहती हैं, जिनसे कुछ हलचल तो जरूर मचती है, किन्तु जल्द ही यह बड़ा नेक्सस इसका तोड़ निकाल लेता है, क्योंकि जो सरकार योजना बनाती है, खुद उसी सरकार के नौकरशाह और अधिकारी, दलालों को इसका तोड़ भी बता देते हैं! अबकी बार रेलवे ने अपने कुछ फैसलों से हलचल पैदा करने की कोशिश जरूर की है, जिससे सीधे तौर पर कुछ ठोस निकलने की उम्मीद नज़र तो आती नहीं! हाँ, इससे जरूरतमंद यात्रियों को असुविधा होने की राह जरूर खुल गयी है. ट्रेन की टिकट बुकिंग में दलालों पर नकेल कसने के लिए रेल मंत्रालय ने ऑनलाइन ई-टिकट और आई-टिकट को लेकर जिन नियमों में बदलाव किए हैं, उसके अनुसार अब कोई भी यात्री एक महीने में सिर्फ छह टिकट बुक करवा पाएगा, जबकि इससे पहले प्रत्येक लॉगिन से एक महीने में 10 टिकट बुक करवाए जा सकते थे.

जो शुरूआती बातें कही जा रही हैं, उसके अनुसार रेलवे द्वारा अपनी वेबसाइट के दुरुपयोग को रोकने के लिए किए गए फैसलों के तहत आईआरसीटीसी पर एक यूज़र आईडी से एक दिन में सिर्फ दो टिकट (सुबह 8 से रात 10 बजे तक) ही मान्य हैं, जबकि तत्काल बुकिंग में भी 10 बजे से 12 बजे तक दो टिकटें ही बुक करवाई जा सकेंगी. इसके अलावा एजेंट बुकिंग शुरू होने के पहले आधे घंटे तक टिकट बुक नहीं करवा सकते, तथा 8 बजे से 12 बजे तक ई-वॉलेट और कैशकार्ड से बुकिंग नहीं की जाएगी. गौरतलब हैं कि यह सारे नियम, 15 फरवरी, 2016 से लागू होने जा रहे हैं. गौरतलब है कि हाल ही में रेलवे ने जनरल टिकट के नियमों में भी बदलाव किए थे, जिनके तहत जनरल टिकट अब सिर्फ तीन घंटे तक मान्य रहेगा.  इसके पीछे जो तर्क दिए गए हैं, उसके अनुसार सामान्य यात्रियों को महीने में छह बार से ज्यादा टिकट बुक करने की जरूरत नहीं होती है. रेलवे अधिकारियों के अनुसार, टिकट बुकिंग से संबंधित आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि 90 प्रतिशत उपभोक्ता महीने में छह टिकट बुक करते हैं, और महज 10 प्रतिशत लोग छह से ज्यादा टिकट बुक करते हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि शेष 10 फीसदी उपभोक्ता संभवत: टिकटों की दलाली कर रहे थे. समझना मुश्किल नहीं हैं कि यह सारे तर्क सम्भावना के आधार पर दिए गए हैं, जिनका कोई ठोस आधार नहीं बताया गया हैं. इस फैसले में जिन 10 प्रतिशत यात्रियों के ज्यादा यात्रा करने की बात कही गयी हैं, उनमें बिजनेस क्लास के लोगों के होने की संभावना भी ज्यादा है, जिसे अनदेखा कर दिया गया है. साफ़ है कि इस फैसले से रेलवे में दलालों पर प्रतिबन्ध लगे न लगे, किन्तु उसके फैसले की कई स्तरों पर किरकिरी जरूर होगी! बेहतर होता अगर रेलवे ऐसे अटपटे फैसलों से बचता और अपना निगरानी तंत्र और मजबूत करता!

निगरानी-तंत्र मजबूत करने के साथ ही साथ विभिन्न स्थानों पर स्टेट बैंक के आउटलेट्स (ग्राहक सुविधा केंद्र) की तरह ऑफिशियल आउटलेट्स जारी करता, ताकि ग्राहकों को उनके नजदीक सुविधाएं मिल सकें तो इस पूरे नेक्सस पर सरकार की नज़र भी बनी रहती! इसके अतिरिक्त, बेरोजगारी के स्तर पर भी हमें समग्र प्रयास की अंतहीन जरूरत तो है ही, साथ ही साथ सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों पर कड़ी सख्ती बरते जाने की भी आवश्यकता है, क्योंकि दलाल पैदा करने और पालने पोसने के लिए खाद-पानी का बड़ा हिस्सा यहीं से मिलता है. एक संगठित अध्ययन के साथ, इन समस्याओं पर श्वेत-पत्र जारी किया जाता और जरूरी सिफारिशों को कड़ाई से लागू किया जाता! वगैर इन उपायों के चाहे रेलवे हो या कोई अन्य सरकारी विभाग, दलालों के नेक्सस से मुक्ति लगभग असंभव ही दिखती है.

– मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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