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उद्योगपतियों और मजदूर-वर्ग का संतुलन

Mithilesh's Pen
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उद्योगपतियों और मजदूर वर्ग की संघर्ष की दास्तानें सदियों पुरानी हैं और यह समस्या आज 21वीं सदी में भी मुंह बाए खड़ी दिखती है. विशेषकर, जब हम भारत जैसे देश की बात करते हैं तब इसकी एक विशाल आबादी का हित हमारे सामने होता है तो बदलते दौर में औद्योगीकरण का बढ़ता कम्पीटीशन, जिसमें चीन जैसे देश हमें पीछे करते जा रहे हैं, उसका ध्यान न रखना तो अर्थव्यवस्था के साथ खिलवाड़ ही कहा जाएगा. इन प्रश्नों का उत्तर आगे की पंक्तियों में ढूंढने की कोशिश करेंगे. इसी क्रम में कांग्रेसी युवराज कहे जाने वाले राहुल गांधी की काफी बातों को सामान्यतः गंभीरता से नहीं लिया जाता है, किन्तु कई बार उनकी कोशिश गंभीर मुद्दों को छू जाती है, जिन्हें समाज का एक बड़ा वर्ग अक्सर अनदेखा करने का प्रयास करता है. कांग्रेस की ट्रेड यूनियन विंग इंटक के 31वें पूर्ण सत्र में राहुल गांधी ने श्रमिकों के हितों की बात करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर तीखा हमला बोला और आरोप लगाया कि वह श्रम संबंधित कानूनों को जानबूझकर कमजोर करने का प्रयास कर रहे हैं जिससे श्रमिकों में असंतोष पैदा हो रहा है. भाषण का संतुलन तब देखते बनता है, जब राहुल ने अपने इसी भाषण में यह भी कह डाला कि वह भारत को चीन से अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए इसे ‘वैश्विक विनिर्माण केंद्र’ बनाने के प्रधानमंत्री के विचार से सहमत हैं, लेकिन पीएम के तरीकों से कतई सहमत नहीं हैं! अपनी अगली लाइनों में उन्होंने यह दावा किया कि ऐसा इस वजह से है क्योंकि प्रधानमंत्री भारतीय मजदूरों को ‘‘बेईमान, कामचोर मानते हैं और यह सोचते हैं कि उनसे केवल डंडे के बल पर काम कराया जा सकता है.’’ अब इन पंक्तियों को एक बार और पढ़िए तो राहुल गांधी द्वारा कही गयी तीन बातें उभर रही हैं, जिसमें भारत को चीन जैसा विकसित होना, श्रमिक वर्ग के हितों पर केंद्र सरकार द्वारा ध्यान न दिया जाना और इन सबसे आगे बढ़कर केंद्र सरकार द्वारा, पूंजीपतियों की खातिर, मजदूरों से जबरदस्ती काम लिया जाना है. अब पहला सवाल यहाँ यह बनता है कि आज मजदूरों की आवाज जोर-शोर से उठाने वाले राहुल गांधी की पार्टी ने पिछले साठ सालों में क्या किया है, जो मजदूरों के हित आज तक असुरक्षित हैं?

खैर, इस प्रश्न का जवाब तो मिलने से रहा और इसका जवाब लेने से कोई फायदा भी नहीं होने वाला, क्योंकि केंद्र की सत्ता में कोई और ही बैठा है! हाँ! वर्तमान केंद्र सरकार से इस बात पर प्रश्न जरूर होना चाहिए कि क्या वाकई, उद्योगपतियों के लिए मजदूरों के हितों को कमजोर किया जा रहा है? इस सन्दर्भ में विचार करने पर स्पष्ट दिखता है कि प्रधानमंत्री देश और विदेश में जिस प्रकार से अपनी धुआंधार रैलियों में निवेश और उद्योगपतियों को बुलाते दिख रहे हैं, उसमें कहीं कोई शक नहीं दिखता है कि वह क्या चाहते हैं? यहाँ तक कि संविधान निर्माता के रूप में पहचाने जाने वाले बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की जन्मशती पर भी उन्होंने औद्योगीकरण की ज़ोरदार वकालत करते हुए कहा कि खुद बाबा साहब इसके प्रसार की बात करते थे, क्योंकि दलित और पिछड़े लोग, जो भूमिहीन थे, उनका विकास उद्योगों के प्रसार से ही संभव हो सकेगा? ऐसा भी नहीं है कि पीएम का ध्यान सिर्फ और सिर्फ प्राइवेट कंपनियों पर ही लगा हो, बल्कि सरकार द्वारा संचालित फर्मों को व्यवहारिक तौर पर कामयाब बनाने के लिए पीएम ने उनको कंपनी का रूप देने की बात करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि उन्हें बंद करना या बेचना ही एक मात्र विकल्प नहीं है. इस कड़ी में, एक सम्मेलन में पीएम ने साफ़ कहा कि सामान्य तौर पर सार्वजनिक उपक्रमों में सुधार के दो ही तरीके आजमाए जाते हैं कि या तो उनका विनिवेश करें या फिर उन्हें बंद कर दें. लेकिन एक तीसरा रास्ता यह है कि उनको कंपनी का रूप दिया जाए और उनकी कार्य संस्कृति में बदलाव लाया जाए. दक्षता लाकर और इस काम को अराजनैतिक रख कर हम चीजों में बदलाव ला सकते हैं. अब ज़रा पीएम की भाषा और राहुल गांधी की आपत्तियों में साम्य स्थापित करने का प्रयत्न कीजिये, तो आप समझ जायेंगे कि जिस कार्यसंस्कृति में दक्षता, अनुशासन और बदलाव की बात प्रधानमंत्री कह रहे हैं, उसी प्रोसेस को राहुल गांधी श्रमिक हितों के साथ खिलवाड़ बता रहे हैं. देखा जाय तो यह इतनी ‘बारीक लाइन’ है कि इसमें आप किसी को सही या गलत एक सांस में नहीं घोषित कर सकते हैं? जिस तरह से देश में अमीरों और गरीबों के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है, उसने यह सोचने को मजबूर किया है कि पूँजी के केंद्रीकरण से समस्याएं और बढ़ी हैं. पूँजीपति वर्ग सिर्फ और सिर्फ मुनाफेखोरी पर ही केंद्रित रहने लगा है!

हालाँकि, मजदूर आंदोलन और हड़ताल जैसी समस्याएं और भी बुरी हैं, क्योंकि इससे देश अंततः गर्त में चला जाता है. समस्या यह है कि इस पूरी प्रक्रिया को हम एक जगह बैठकर सुलझाने की बजाय राजनीति करने को ज्यादा तरजीह देते हैं. आज मजदूर हितों और आर्थिक विकास की एक साथ बात करने वाले राहुल गांधी इस प्रश्न का उत्तर शायद ही दे पाएं कि उनकी पार्टी की सैद्धांतिक सहमति के बावजूद ‘जीएसटी’ जैसे महत्वपूर्ण विधेयक क्यों नहीं पारित हो रहे हैं? संसद में बकवास राजनीति पर खूब बहस हो रही है, तो विधेयकों को लटकाने में विपक्षी दलों को खूब आनंद आ रहा है. इसी तरह, केंद्र सरकार को भी इस प्रश्न पर गौर करना चाहिए कि क्योंकि खुद आरएसएस का सहयोगी संगठन भारतीय मजदूर संघ, उसकी कई नीतियों से नाखुश है? आखिर सरकार कांग्रेस उपाध्यक्ष की बातों को गलत क्यों नहीं साबित कर रही है, जिसमें वह कह रहे हैं कि श्रम कानूनों को इसलिए कमजोर किया जा रहा है, जिससे कि श्रमिक पूंजीपतियों के सामने घुटने टेकें. आखिर, श्रमिक को डरा कर हम किस तरह के समाज की रचना को बढ़ावा देंगे? श्रमिक के भविष्य को लेकर, अपने बच्चों के भविष्य को लेकर जो डर है, उसे दूर करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की ही तो है! राहुल गांधी की पार्टी ने बेशक अपने शासनकाल में श्रमिक हितों पर कुछ ख़ास नहीं किया हो, लेकिन उनकी हालिया बात पर ध्यान देना ही चाहिए, जिसमें उन्होंने जोर देते हुए कहा है कि सरकार को श्रमिकों और उद्योग के बीच ‘‘न्यायाधीश’’ बनना चाहिए, न कि उद्योग-जगत का ‘‘वकील’’! यह बात भी 100 फीसदी सत्य है कि अगर श्रमिकों के मन से डर निकल गया, तो भारत जल्द ही चीन से आगे निकल जाएगा. इस पूरी प्रक्रिया को समुचित रूप से लागू करने की जिम्मेदारी सरकार की सबसे ज्यादा है, जिससे उद्योगों पर दुष्प्रभाव न पड़े, साथ ही साथ श्रमिकों के हित भी दीर्घकालिक अवधि तक सुरक्षित रहें. इसके लिए विपक्ष को भी संसद में अपना हठीला रवैया छोड़ना होगा, जिससे जीएसटी जैसे जरूरी कानून बेवजह की राजनीति की भेंट न चढ़ें. इस सम्मेलन में, राहुल गांधी के बाद बोलते हुए पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि अवसंरचनात्मक श्रम सुधारों के नाम पर अनुबंध पर श्रम के पक्ष में सुरक्षित औद्योगिक नौकरियों की गुंजाइश को कम करने तथा ‘‘रखने और निकालने’’ की प्रवृत्ति के प्रयास किए जा रहे हैं. एक अर्थशास्त्री के रूप में विख्यात डॉ. मनमोहन सिंह ने आर्थिक विकास की रफ़्तार पर कहा कि ‘‘सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि 2022 तक हमें कम से कम 50 करोड़ कुशल कामगारों की आवश्यकता होगी, लेकिन मौजूदा रफ्तार को देखें तो हम लक्ष्य की दिशा में मामूली सफलता ही हासिल कर पाएंगे.’’ उन्होंने यह भी कहा कि औद्योगिक विवाद, हड़ताल और तालाबंदी अशांति के समाधान के ‘‘सर्वश्रेष्ठ साधन नहीं हैं.’’ ‘‘हमें त्रिपक्षीय प्रक्रिया- कामगारों, उद्योग और सरकार के सभी भागीदारों को शामिल कर शांतिपूर्ण वार्ता के जरिए औद्योगिक समस्याओं के समाधान की मौजूदा स्थिति को विस्तारित करना चाहिए.’’ जाहिर है कि, वगैर इन समस्याओं का बहुपक्षीय हल निकाले हम न तो विकास के प्रति अपनी सोच को दीर्घकालिक रख सकते हैं और न ही मजदूर वर्ग के हितों को ही संरक्षित कर सकते हैं. जरूरी है, बदलते समय में स्थितियों पर गौर करने की, जिससे असंतुलित विकास की बजाय स्वाभाविक रूप से हमारा देश और उसके देशवासी विकसित हो सकें.

– मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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