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अगले शीतयुद्ध का दौर

Mithilesh's Pen
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सीरिया में जिस तरह से तमाम वैश्विक महाशक्तियां दिलचस्पी ले रही हैं, उसने तमाम विश्लेषकों को चिंता में डाल दिया है कि कहीं यह तृतीय विश्व युद्ध का शुरूआती बीज तो नहीं. प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के भयावह परिणामों को दुनिया आज तक नहीं भूल सकी है और द्वितीय विश्व युद्ध को समाप्त हुए अभी 100 साल भी नहीं हुए कि दुनिया फिर उसी मुहाने पर आ खड़ी हुई है, जहाँ सिर्फ विनाश ही विनाश हो सकता है. संयोग से प्रथम विश्व युद्ध जब शुरू हुआ था और जब तक चला था, उसके 100 वर्ष पूरे होने को हैं, मतलब इसे फर्स्ट वर्ल्ड वार का शताब्दी समय कहा जा सकता है. साम्राज्यवाद एक प्रमुख कारण था इन दोनों विश्व युद्धों का जो मुख्य राष्‍ट्रों के कूदते ही भीषण हो गया था. 1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्व युद्ध में जहाँ करोड़ों लोग और सैनिक प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए, तो करीब एक करो़ड़ लोग काल के गाल में समा गए, इतने ही लापता हुए और 2 करोड़ के लगभग घायल. दूसरा विश्व युद्ध 1939 से 1945 तक चलने वाला ज्यादा व्यापक युद्ध था, जिसमें लगभग 70 देशों की थल-जल-वायु सेनाएँ इस युद्ध में सम्मलित थीं. जाहिर तौर पर, इस युद्ध में विश्व दो भागों मे बँटा हुआ था – मित्र राष्ट्र और धुरी राष्ट्र. द्वितीय विश्व युद्ध की एक खासियत यह भी थी कि इस युद्ध के दौरान पूर्ण युद्ध का मनोभाव प्रचलन में आया क्योंकि इस युद्ध में लिप्त सारी महाशक्तियों ने अपनी आर्थिक, औद्योगिक तथा वैज्ञानिक क्षमता इस युद्ध में झोंक दी थी. इस युद्ध में विभिन्न राष्ट्रों के लगभग 10 करोड़ सैनिकों ने हिस्सा लिया, तथा इस महायुद्ध में 5 से 7 करोड़ व्यक्तियों की जानें गईं क्योंकि इसके महत्वपूर्ण घटनाक्रम में असैनिक नागरिकों का नरसंहार तथा परमाणु हथियारों का एकमात्र इस्तेमाल भी हुआ. आज जब एक आतंकवादी संगठन आईएसआईएस को नेस्तनाबूत करने के तौर-तरीकों को लेकर विश्व के शक्तिशाली देश दो गुटों में विभाजित नज़र आ रहे हैं, तब यह समझना दिलचस्प हो जाता है कि प्रथम विश्व भी निहायत छोटी घटना से ही शुरू हुआ था. आधुनिक इतिहास का यह पहला सबसे भीषण युद्ध ऑस्ट्र्यिा के सर्बिया पर आक्रमण से शुरू हुआ, जिसका कारण था, ऑस्‍ट्रेलिया राजसत्ता के उत्तराधिकारी आर्कड्युक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की हत्या होना माना जाता है.

अब आज के दौर में जब कच्चे तेल की खपत एक प्रमुख मुद्दा बन चुका है और इसके साथ ही साथ धर्म के नाम पर लोगों को बांटकर अपना वर्चस्व लगातार बढ़ाने की कोशिशें हो रही हैं तो इसके परिदृश्य में कई सत्ताएं गृह युद्ध की चपेट में आ चुकी हैं. तालीबान, बोकोहराम, अलकायदा और आईएसआईएस जैसे संगठन इस्लाम को ऐसे मोड़ पर खड़ा कर चुके हैं, जिससे प्रत्येक देश, जहाँ मुस्लिम समुदाय मौजूद है, उनकी मानसिकता से डर रहा है. खुद भारत में, जहाँ का इस्लाम अपेक्षाकृत उदार कहा जा रहा है, वहां भी इस्लामिक स्टेट के कद्रदान पाये जा रहे हैं. इसके अतिरिक्त कट्टर इस्लाम और आतंकवाद आज एक दुसरे के पूरक बन चुके हैं, इसलिए मुंबई और पेरिस जैसे हमलों की श्रृंखला बढ़ने के डर से तमाम देश कट्टरवादी इस्लामिक संगठनों के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं तो अपने राजनैतिक और क्षेत्रीय हितों का स्वार्थ इनके सामने आ खड़ा हो रहा है. अब सीरिया का मामला ही ले लीजिये, जिस तरह से रूस और अमेरिका जैसे ताकतवर राष्ट्रों ने एक दुसरे के खिलाफ राजनीतिक तानें छेड़ रखी है, उससे पूरी दुनिया सशंकित है कि कहीं विश्व युद्ध जैसे हालात का सामना फिर न करना पड़ जाए. इस बात पर विश्लेषक अगर किन्तु-परन्तु भी कर रहे हैं तो इस बात में कहीं कोई दो राय नहीं है कि वैश्विक राजनीति शीत-युद्ध के अगले दौर में प्रवेश करेगी ही, जहाँ शह और मात  की चालें और तेजी से चली जाएँगी और मोहरा बनेंगे सीरिया या तुर्की जैसे देश. समझना दिलचस्प होगा कि जिस प्रकार का दुस्साहस तुर्की ने रूस के विमान को गिराकर दिया है, उसके पीछे किस महाशक्ति का हाथ हो सकता है. रूस ने भी इस मामले को कई कदम आगे जाकर अति गंभीरता से लिया है. तुर्की के एक रूसी जेट विमान को गिराए जाने के बाद रूस ने सीरिया में न केवल अपने विमानों का सुरक्षा घेरा बहुत मज़बूत कर लिया है, बल्कि सीरिया में अपने मुख्य बेस पर क़रीब 400 मिसाइलें भी तैनात कर दी हैं. इसके अलावा, विमान गिराने की घटना के बाद रूस ने तुर्की के साथ वीज़ा मुक्त व्यवस्था रद्द करने का फ़ैसला किया है, तो तुर्की पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने की कवायद भी रूस द्वारा किया जाना आश्चर्य का विषय नहीं होगा. हालांकि तुर्की के राष्ट्रपति रचैप तय्यैप एर्दोआन ने रूस को चेतावनी दी है कि सीरिया में अपने अभियान को लेकर वह “आग से न खेले”, तो अमेरिकी राष्ट्रपति और नाटो देशों ने भी तुर्की के साथ मजबूती से खड़े होने का संकल्प भी दुहराया है. हालाँकि, अभी यह एक कल्पना ही है, लेकिन आज के हालातों में पिछले दो विश्व युद्धों जैसा कोई भीषण संग्राम छिड़ता है तो इससे उत्पन्न नुक्सान का आंकलन निहायत मुश्किल होगा.

प्रथम विश्व युद्ध का वास्तविक आगाज 21 फरवरी 1916 को हुआ माना जा सकता है. इस दिन जर्मनी की नौ डिवीजन ने मॉजेल नदी के दाहिने किनारे पर आक्रमण किया और पहले और द्वितीय मोर्चे पर अधिकार कर लिया.  इस पर जर्मनी और फ्रांस के बीच कुछ दिनों तक भीषण युद्ध हुआ. इसी तरह से अगर वर्तमान में ऐसी कोई स्थिति बनती है तो रूस और तुर्की के बीच हुए तनाव प्रमुख भूमिका निभाएंगे. हालाँकि, संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका ऊपर से इन मामलों को सुलझाने की कवायद करता दिख रहा है, किन्तु समझना कठिन नहीं है कि तुर्की ने किसके दम पर रूस के एक लड़ाकू विमान को मार गिराया है. आज के दौर में आईएसआईएस, बोकोहराम और तालिबान जैसे संगठन प्रत्यक्ष युद्ध में भले ही संगठित राष्‍ट्र सत्ताओं के सामने कोई प्रभाव न छोड् पाएं और क्षणिक आकस्मिक हमलों तक सिमट कर रह जाएं, लेकिन वे सूचना क्रांति के काल में सोशल मीडिया व अन्य माध्यमों से दुनियाभर में धार्मिक वैमनस्यता बढ़ाने में कामयाब हो रहे हैं, लोगों को निज धर्म के प्रति कट्टर बना रहे हैं, साम्प्रदायिक सहनशीलता के उपवन को सूखा और वीरान कर रहे हैं. जाहिर है, इससे पहले की विश्व युद्ध जैसा कोई खतरा उत्पन्न हो, बड़े देशों को तुच्छ हितों और राजनीति से ऊपर उठकर मानवता के हित में आतंकवाद से मुक्ति के लिए सार्थक संवाद और फिर कार्रवाई पर सामंजस्य बिठाना ही होगा. आश्चर्य तो यह है कि जब इस्लामिक कट्टरपंथ पर सभी देश चिंतित हैं और इसके दुष्परिणाम भी भुगत चुके हैं तो उससे निपटने में दोहरापन क्यों दिखाया जा रहा है. आखिर, इस्लामिक स्टेट, लश्कर-ए-तय्यबा, बोकोहरम और अलकायदा में मूलतः क्या अंतर है, सिवाय इसके कि इनका कार्य क्षेत्र अलग-अलग स्थान हैं. फिर क्यों नहीं सभी देश, इसके खिलाफ मिलकर एक मोर्चा बनाएं और इसको सम्मिलित रूप में कुचलने का प्रयास करें. आखिर, दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी इस्लाम को इन आतंकियों के हवाले क्यों किया जा रहा है. जब तक पश्चिम इस बात पर एकमत नहीं होगा, तब तक यह मुमकिन नहीं कि कुछ ठोस बदलाव आये. और इस क्रम में अभी विश्व युद्ध भले ही न हो, किन्तु शीत-युद्ध का प्रकोप झेलने के लिए तो दुनिया मजबूर होगी ही.

आखिर कौन नहीं जानता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने कंधे से कन्धा मिलाकर धूरी राष्ट्रों- जर्मनी, इटली और जापान के विरूद्ध संघर्ष किया था, किन्तु युद्ध समाप्त होते ही, एक ओर ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरी ओर सोवियत संघ में तीव्र मतभेद उत्पन्न होने लगा. रूस के नेतृत्व में साम्यवादी और अमेरिका के नेतृत्व में पूँजीवादी देश दो खेमों में बँट गये. हालाँकि, इन दोनों पक्षों में आपसी टकराहट आमने सामने कभी नहीं हुई, पर ये दोनों गुट इस प्रकार का वातावरण बनाते रहे कि युद्ध का खतरा सदा सामने दिखाई पड़ता रहता था. बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध, सोवियत रूस द्वारा आणविक परीक्षण, सैनिक संगठन, हिन्द चीन की समस्या, यू-2 विमान काण्ड, क्यूबा मिसाइल संकट कुछ ऐसी परिस्थितियाँ थीं जिन्होंने शीतयुद्ध की अग्नि को और ज्यादा भड़काया. हालाँकि, 1991 में सोवियत रूस के विघटन से उसकी शक्ति कम हो गयी और शीतयुद्ध समाप्त जरूर हो गया, लेकिन पुतिन रूस को हर तरह से एक सुपर पावर ही मानते रहे हैं और उनकी नीतियां भी ऐसी ही रही हैं. निश्चित रूप से पॉवर खोने की टीस मन में रहती ही है, लेकिन अमेरिका समेत पश्चिमी देश भी ऐसी स्थिति के लिए कुछ कम जिम्मेदार नहीं हैं. वैसे, अगर दुनिया फिर से शीत-युद्ध के दौर में प्रवेश करती है तो समझना मुश्किल नहीं होगा कि दो मजबूत गुटों में कौन-कौन देश रहेंगे. जहाँ तक भारत की बात है तो हाल-फिलहाल उसके लिए स्थिति अभी गुट-निरपेक्ष वाली ही है, जिसकी निकट भविष्य में बदलने की सम्भावना भी कम ही है.

– मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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