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ऐसे में मीडियाकर्मियों, तथाकथित बुद्धिजीवियों और तमाम धार्मिक संगठनों द्वारा बड़ी आसानी से एक दूजे पर यह आरोप लगा दिया जाता है कि उनके कारण ही इस प्रकार की घटनाएं हुई हैं, मगर क्या वास्तव में यही सच है? क्या इसके लिए कानून और सरकारी लचरता बिलकुल भी जिम्मेदार नहीं है. अगर गाय के ऊपर एक सख्त सरकारी आदेश आ जाय और उसे लागू किया जाय तो फिर विवाद की जगह ही नहीं बचेगी! वह निर्णय चाहे पक्ष में हो या विपक्ष में, शर्तों के साथ हो या शर्तों के बिना! दादरी कांड पर हो रही राजनीति पर एक नजर डालिये.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू जैसे लोगों ने तो यह तक कह दिया कि गाय एक जानवर है, वह किसी की माता कैसे हो सकती है? तो, शोभा डे समेत दुसरे लोगों ने हिन्दू आस्थाओं की जमकर खिल्ली उड़ाई. अगर सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस विषय पर दिशा-निर्देश जारी किया जाता है तो यह एक गाइड लाइन की तरह लोगों का मार्गदर्शन करेगी! पिछले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दिया गया यह बयान कि देश के संशाधनों पर पहला हक मुसलमान, अल्पसंख्यकों का है, हिन्दुओं के प्रति असुरक्षा ज़ाहिर करने वाला बयान था. ऐसे बयानों से लगा कि पाकिस्तान और बांग्लादेश से तो हिन्दुओं का सफाया हो ही रहा है (ऐसा खुद संयुक्त राष्ट्र संघ और दुसरे देश मान रहे हैं), और भारत में भी उन्हें दोयम दर्जे का बनाने की कोशिश की जा रही है. देखा जाय तो इस प्रकार की राजनीति काफी हद तक देश में विद्वेष फैलाने का कार्य करती है. ऐसे में नेताओं को क्यों दोषी नहीं माना जाना चाहिए? और इन सबसे परे हटकर देखा जाय तो लोगों की धार्मिक पहचान कानून से ऊपर होनी ही नहीं चाहिए. आज हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं और फिर भी अगर किसी शरिया या गाय के मुद्दे को लेकर देश में विद्वेष उठ जाए तो इससे विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र पर गंभीर प्रश्नचिन्ह उठते हैं. दादरी का मुद्दा कानूनी मुद्दा हो सकता था, अख़लाक़ की हत्या के पहले और बाद भी, लेकिन यह मुद्दा राजनीतिक और उससे आगे बढ़कर सामाजिक मुद्दे के रूप में परिणित हो जाये तो इस कानून के शासन की फेल्योर ही माना जाना चाहिए. यही नहीं, इस मुद्दे पर आज़म खान संयुक्त राष्ट्र संघ जा रहे हैं तो साध्वी प्राची गौ मांस खाने वालों की हत्या को जायज़ ठहराती हैं. प्रतिक्रिया में एक और सपा नेता ने प्राची की हत्या की बात भी कही… भाजपा, कांग्रेस, केजरीवाल, ओवैसी … ये लोग क्या-क्या कह रहे हैं इन मुद्दों पर और कानून वाकई कहाँ है अपने देश का? केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तर का प्रशासन क्या वाकई इतना लचर है कि किसी नेता को कोई डर ही नहीं है! बल्कि, इसके उल्टा उसको यकीन है कि ऐसे मौकों पर वह बवाल काटकर समुदाय विशेष का हीरो बन सकता है! और वह ऐसा करता भी है… है कोई कानून? है कोई कोर्ट? है कोई धर्मनिरपेक्षता? कानून का शासन ही एकमात्र रास्ता है धर्मान्धता से बचने का! लोगों को यकीन होना चाहिए कि उनके साथ राजनीति नहीं होगी, बल्कि कानूनन न्याय होगा, फिर देखिये कैसे किसी अख़लाक़ की हत्या होती है और कैसे कोई आज़म या साध्वी बकवास कर पाती है? कानून को ऊपर करो… सबसे… धर्म से तो निश्चित रूप से!
India needs strict laws, against religious contradictions,
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