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गठबंधन एवं वर्चस्व का भाजपाई संतुलन

Mithilesh's Pen
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भाजपा के हालिया उभार के बाद बिहार विधानसभा चुनाव इस पार्टी के लिए पहला बड़ा इम्तिहान हैं, जहाँ राजनीति की बिसात पर एकजुट विपक्ष उसे कड़ी टक्कर दे रहा है. लोकसभा में प्रचंड बहुमत से जीतने के बाद महाराष्ट्र, झारखण्ड, हरियाणा जैसे राज्यों में चुनाव जरूर हुए मगर वहां मुख्य विपक्षी कांग्रेस के होने से भाजपा को स्वाभाविक लाभ मिला. दिल्ली में जरूर एक अलग पार्टी थी, लेकिन वह नयी और प्रचार में टक्कर की होने के साथ-साथ कांग्रेस के वोट पर्सेंटेज को अपनी ओर विभिन्न कारणों से खींचने में सफल रही, जिससे भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा. मगर बिहार में भाजपा को असली चुनावी टक्कर मिली है. अब जबकि बिहार चुनाव में दोनों गठबंधनों की पोटली खुल गयी तो इसके विभिन्न कोणों को देखना दिलचस्प होगा. यूं तो हर एक चुनाव राजनेताओं के लिए जीने-मरने का प्रश्न होता है, लेकिन जिस शिद्दत और राजनीतिक एकता से बिहार चुनाव में लगभग सभी पार्टियां अपना ख़म ठोंक रही हैं, वह अपने आप में बेमिसाल है. वस्तुतः बिहार चुनाव में तमाम पार्टियों का अहम भी टूटा है, विशेषकर जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल का शीर्ष नेतृत्व तो शीर्षासन करते दिखा है. इस ‘महागठबंधन’ की मजबूरी कुछ ऐसी है कि एक दुसरे की तुलना ‘सांप और चन्दन’ जैसी उपमाओं से करनी पड़ी है, तो देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी का दम भरने वाली कांग्रेस की हालत का अंदाजा सोनिया गांधी की विवशता से आसानी से लगाया जा सकता है.

जी हाँ! फ़ोर्ब्स जैसी पत्रिका में देश की सबसे शक्तिशाली महिला और विश्व की शक्तिशाली शख्शियतों में कई बार शामिल हो चुकीं सोनिया गांधी की स्थिति ऐसी आ गयी कि उन्हें लालू यादव और राबड़ी देवी जैसे राजनेताओं के साथ न केवल मंच शेयर करने को मजबूर होना पड़ा, बल्कि इन प्रादेशिक नेताओं में भी दोयम दर्जे का व्यवहार मीडिया में जमकर चर्चित हुआ. आखिर कौन सोच सकता था कि दस साल तक प्रधानमंत्री को अपनी उँगलियों पर नचाने वालीं और लालू जैसे नेताओं को मिलने तक के लिए कई दिनों तक इन्तजार कराने वालीं सोनिया गांधी को किसी जूनियर नेता की तरह पहले ही भाषण देने को कह दिया जायेगा और उनके मुंह पर ही लालू जैसे नेता कांग्रेस के महत्वपूर्ण वोट बैंक, यानी अगड़ों की खिंचाई कर देंगे. खैर, राजनीति में तमाम बुराइयों के अतिरिक्त यही तो ख़ूबसूरती है कि यहाँ अहम पालने वाले लोगों को ज़मीन सुँघनी ही पड़ती है और महागठबंधन के तीनों घटक दलों के शीर्ष नेता यानी नीतीश कुमार, लालू यादव और सोनिया गांधी इस राजनैतिक अहम के श्रेष्ठ उदाहरण कहे जा सकते हैं. व्यक्तिगत राजनीतिक दुश्मनी और महत्वाकांक्षा का दुष्प्रभाव कोई नीतीश से पूछे तो ‘भूरा बाल’ साफ़ करने की बात लालू से बेहतर कौन बता सकता है. भ्रष्टाचार को अत्यधिक हल्के में लेकर अपने सहयोगियों के घोटालों पर पर्दा डालकर जनता को मुर्ख बनाने का अहम और उसका दुष्प्रभाव सोनिया गांधी ही बेहतर जानती है. बिहार चुनाव में दुसरे पक्ष, यानी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हालत भी कहीं ज्यादा बेहतर नहीं कही जा सकती है, हालाँकि इस बार भाजपा ने सीटों के बंटवारे में 160 सीटें लेकर अपना वर्चस्व जरूर साबित किया है, लेकिन उसे भूलना नहीं चाहिए कि बिहार की सरकार में 7 सालों से ज्यादा वह भी शामिल रही है और ऐसे में बिहार की जनता उससे चुनावों में जरूर पूछेगी कि बिहार का विकास कहाँ है और पलायन सहित जातिवादी राजनीति आज भी क्योंकर है? जहाँ तक पासवान और मांझी का सवाल है तो द्विध्रुवीय लड़ाई में इनके पास ज्यादा विकल्प बचे ही नहीं थे और उनकी इस स्थिति का भाजपा ने भरपूर फायदा भी उठाया.

नीतीश के साथ मांझी के जाने का कोई मतलब ही नहीं था, जबकि अकेले लड़ने का हश्र क्या होगा, यह मांझी बेहतर जानते समझते हैं. वैसे भी ‘वोट कटवों’ की भूमिका में कई दल मैदान में हैं, जैसे कि समाजवादी पार्टी, पप्पू यादव और असदउद्दीन ओवैसी. ऐसे में मांझी ने अपने राजनीतिक अस्तित्व और पहचान के लिए थोड़ा रूठना-मनाना एपिसोड के बाद समझदारी भरा निर्णय लिया है. रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा पहले ही केंद्र सरकार में मंत्री हैं, ऐसे में उनका भी भाजपा के पक्ष में झुकना समय की ही मांग थी. चुनाव में जीत-हार किसकी होगी, यह तो समय बताएगा, मगर राजनीतिक बिसात पर भाजपा फ्रंट फुट पर है, इसमें कोई दो राय नहीं है. अपने स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी और इन तमाम समीकरणों की जद्दोजहद के बाद भी अगर भाजपा के लिए बिहार से शुभ समाचार नहीं मिलता है तो न केवल 2017 में यूपी के महासमर में इसका असर पड़ना तय है, बल्कि राज्यसभा में सरकार के समीकरण और नरेंद्र मोदी की छवि भी इससे अछूती नहीं रहेगी. ऐसे में जनता को यकीन दिलाना और उस यकीन पर खरा उतरना भाजपा की सबसे बड़ी जिम्मेवारी बनती है कि अगर वह सत्ता में आती है तो बिहार निश्चित रूप से ‘बीमारू’ तमगे से निजात पा जायेगा. जनता ने अगर भरोसा कर लिया तो भाजपा की बल्ले-बल्ले और अगर जनता भाजपा की इस बात को विरोधियों की भाषा में ‘जुमलेबाजी’ समझ बैठी तो इसका हश्र बेहतरीन चुनाव संगठक अमित शाह भलीभांति समझते हैं.

– मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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