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लिंगानुपात, शिक्षा, आबादी एवं मुस्लिम महिलाएं

Mithilesh's Pen
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पाई गई थी. यानी, देश की कुल आबादी में जुड़ने वाले हिंदुओं की तादाद में 3.16 प्रतिशत की कमी आई है, जिसे निश्चित रूप से सराहनीय कहा जाना चाहिए. इसके अतिरिक्त, पिछली जनगणना के मुताबिक़ भारत में मुसलमानों की आबादी 29.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी जो अब गिरकर 24.6 फ़ीसद हो गई है. साफ़ है कि भारत में मुसलमानों की दर अब भी हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक है, हालाँकि मुसलमानों की आबादी बढ़ने की दर में 2001 की जनगणना के अनुसार गिरावट भी आई है, लेकिन देश पर जिस प्रकार जनसँख्या का बोझ है, उसे देखते हुए मुस्लिम समाज को जनसँख्या बृद्धि में और कमी किये जाने की आवश्यकता महसूस होनी चाहिए. वहीं, ईसाइयों की जनसंख्या वृद्धि दर 15.5 फ़ीसद, सिखों की 8.4 फ़ीसद, बौद्धों की 6.1 फ़ीसद और जैनियों की 5.4 फ़ीसद है, जो लगभग सामान्य ही है. लिंगानुपात, बढ़ती आबादी दर के अतिरिक्त जारी किये गए इन आंकड़ों में शिक्षा की स्थिति पर भी गौर करना आवश्यक है. मुसलमानों के सन्दर्भ में ही बात की जाय तो केरल की मुस्लिम आबादी के ग्रोथ में नेगेटिव ट्रेंड दिखा है, जबकि आसाम और पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा और यूपी, बिहार जैसे राज्यों में भी काफी ज्यादा आबादी में बढ़ोतरी हुई है. साफ़ है जहाँ शिक्षा का स्तर बढ़ा है, वहां आबादी पर अंकुश भी लगा है. धार्मिक आंकड़े जारी होने पर राजनीति करने के बजाय अगर धर्मों के ठेकेदार लिंगानुपात, आबादी के बढ़ते दबाव और शिक्षाBhrun Hatya, Population statistics of India, hindi article, Great India प्रसार पर ही गौर कर लें तो जनगणना का बड़ा मकसद हासिल हो जायेगा. धार्मिक आंकड़े जारी किये जाने के पश्चात यह बात भी तय है कि केंद्र सरकार पर जातिगत आंकड़ें जारी करने का दबाव बढ़ जायेगा. फिलहाल सरकार ने जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी नहीं किए हैं. राजद, जदयू और डीएमके जैसे राजनीतिक दल सरकार पर लगातार दबाब बना रहे हैं कि वो जातिगत जनगणना के आंकड़े भी सार्वजनिक करे. यहाँ यह बात गौर करने वाली है कि जाट, गुर्जर और दुसरे आरक्षण आन्दोलनों के बाद गुजरात में पाटीदारों का आंदोलन भी हिंसक हो चला है, जिसकी जितनी भी निंदा किया जाय कम ही है! ऐसे में, केंद्र सरकार के लिए यह आंकड़ा जारी करने से पहले उसके सभी पहलुओं पर गौर कर लेना चाहिए. हाँ! अगर सरकार आवश्यक समझे तो उस आंकड़े से सम्बंधित सुधारवादी पहलुओं पर एक श्वेत पत्र अवश्य ही जारी कर सकती है. देखा जाय तो जनगणना का असल मकसद भी यही है कि विभिन्न पैमानों पर पिछड़ेपन को दूर करने का यत्न होना चाहिए. ऐसे में, सिर्फ सरकारी जनगणना ही क्यों, विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के आंकड़ों पर भी गौर फ़रमाया जाना चाहिए. इसी तरह के एक हालिया आंकड़े में मुस्लिम औरतों पर एक रिपोर्ट आयी, जिस पर उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी होनी चाहिए थी. देश के 10 राज्यों में मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार के लिए काम करने वाले एनजीओ, भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) की ओर से किए गए सर्वे में 4,710 महिलाओं से बातचीत में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आये. इस सर्वे में देश की 92 फीसदी मुस्लिम महिलाओं का मानना है कि तीन बार तलाक बोलने से रिश्ता खत्म होने का नियम एक तरफा है और इस पर रोक लगनी चाहिए. यहाँ, महिलाओं ने माना कि तलाक से पहले भारतीय कानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए और इन मामलों में मध्यस्थता का प्रावधान भी होना चहिए. इस सर्वे में यह तथ्य भी उभर कर सामने आया कि अधिकतर मुस्लिम महिलाएं आर्थिक और सामाजिक तौर पर काफी पिछड़ी हैं. सर्वे के अनुसार 55.3 फीसदी मुस्लिम महिलाओं की 18 साल से पहले ही शादी हो गई और घरेलू हिंसा का भी सामना करना पड़ा. देखा जाय तो मुसलमानों की बढ़ती आबादी में और मुस्लिम औरतों के पिछड़ेपन में गहरा सम्बन्ध है. मुस्लिम औरतों की हालत कई बार तो मानवाधिकारों के उल्लंघन का सीधा मामला भी प्रतीत होती हैं. ऐसे में साफ़ है कि भारत सरकार की जनगणना और भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन के सर्वे में काफी कुछ सामने निकल कर आया है और समस्याएं तभी दूर होंगी जब लिंगानुपात, शिक्षा, आबादी एवं मुस्लिम महिलाओं की हालत सुधारने के लिए सरकार और समाज ठोस कदम उठाने को तत्पर होंगे.

– मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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