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मोदी के लिए चक्रव्यूह है कश्मीर

Mithilesh's Pen
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पूरे भारत का सम्मान बढ़ा है. अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस, इजरायल से सम्बन्ध, ओबामा द्वारा भारत को प्रमुखता दिया जाना जैसे अनेक उदाहरण हैं, जो नरेंद्र मोदी की ताकत के बढ़ते हुए ग्राफ को रेखांकित करती हैं. ऐसे में, उनके समकक्षों और भारत के प्रतिद्वंदियों का चौकन्ना होना लाजमी ही है. ऐसे में, भारतीय प्रधानमंत्री को कमजोर करने के सबसे बड़े हथियार के रूप में कश्मीर मुद्दे का सजग इस्तेमाल किया जा रहा है. जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के बार में चाहे जितनी आलोचना कर ली जाय, किन्तु इस बात में कोई दो राय नहीं है कि युवा पीढ़ी में वह बेहद सुलझे हुए नेता हैं. वह मुद्दों को न केवल समझते हैं, बल्कि उनके प्रतिक्रिया करने का ढंग अच्छी चर्चा बटोरने वाला भी होता है. भारत पाकिस्तान के बीच आयोजित दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक के सन्दर्भ में हो रहे घटनाक्रम पर वह बारीक निगाह बनाये हुए हैं और इसी को लेकर उन्होंने बड़ा दिलचस्प ट्वीट किया. उमर ने एनएसए लेवल की मीटिंग पर सवाल उठाते हुए लिखा, ‘मैंने कभी भारत-पाक के बीच ऐसा कोई संवाद नहीं देखा है, जिसे रद्द करने के लिए दोनों ही देश पूरी कोशिश कर रहे हैं. दोनों ही देश एक-दूसरे को मीटिंग रद्द करने की वजह दे रहे हैं.’ जी हाँ! उनका यह ट्वीट सच्चाई के काफी करीब भी दिखता है, क्योंकि पाकिस्तान की तरफ से भारत को भड़काने के लिए जो कुछ भी किया जा सकता है, सब किया जा रहा है. मसलन, कश्मीरी अलगाववादियों से मिलने का खुलेआम एलान और उसकी हाई प्रोफाइल घोषणा करना, उसके गृह मंत्री द्वारा भारत पर आतंक को प्रायोजित करने का आरोप लगाना और दुसरे लोगों द्वारा परमाणु हमले की धमकी देना जैसे अंतहीन भड़काऊ वक्तव्य. इस मसले पर भारत की ओर से भी कोई खास समझदारी दिखाई गयी हो ऐसा दिखता नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार से कश्मीरी अलगाववादियों को पहले नजरबन्द किया गया, फिर उन्हें दो घंटे में ही रिहा कर दिया गया, उससे भारत की किरकिरी ही हुई है. उमर ने इस तरफ भी इशारा किया है और मुफ़्ती सरकार पर कड़ा हमला किया है. वास्तव में देखा जाय तो केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की मोदी सरकार को कश्मीर समस्या के बारे में वृहद स्तर पर उलझाया जा रहा है और इस खेल में मुफ़्ती सरकार, पाकिस्तान और चीन, रूस, अमेरिका जैसी महाशक्तियों के भी शामिल होने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है और दुःख की बात यह है कि अजीत डोभाल जैसे सक्षम और तेज तर्रार सलाहकार के बावजूद कश्मीर पर भारत का रूख चिंता का कारण बनता जा रहा है. हालिया घटनाक्रम पर दृष्टिपात करने से इस बात पर विश्वास करने की वाजिब वजह भी सामने नजर आती है. पिछली साल इन्हीं अलगाववादियों से पाकिस्तान की मीटिंग की वजह से झटके से विदेश सचिव स्तर की वार्ता भारत की ओर से रद्द कर दी गयी थी, जिसका ख़ामियाजा भारतीय खेमा आज तक भुगत रहा है. पता नहीं, नरेंद्र मोदी को किस ब्यूरोक्रेट ने ऐसा करने के लिए राजी किया होगा अथवा इसके पीछे लाभ-हानि का कौन सा गणित पेश किया गया होगा यह समझना अत्यंत मुश्किल है. वार्ता रद्द होने की एकतरफा जिम्मेवारी भारत पर आ पड़ी और एक सूर से अमेरिका कम मगर चीन और रूस ने उफ़ा में भारतीय प्रधानमंत्री पर वार्ता के लिए जबरदस्त दबाव का निर्माण किया. उफ़ा में अंतर्राष्ट्रीय दबाव का स्तर इस बात से ही समझा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी ने अपने राजनैतिक नफा-नुक्सान की परवाह किये वगैर, पाकिस्तान जाने का निमंत्रण भी स्वीकार कर लिया. इसके बाद पाकिस्तान लगातार उकसाने वाली हरकतें भी कर रहा है जिसमें गुरदासपुर और उधमपुर अटैक के साथ सीमा पर रोज गोलीबारी शामिल हैं, मगर इससे ज्यादा यह चिंता की बात है कि उसने भारतीय खेमे की बातचीत की बेचैनी को कश्मीर मुद्दे को केंद्र में लाने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. इसमें कश्मीर की मुफ़्ती सरकार में अलग-अलग केंद्र होने से भारत सरकार की समस्याएं और बढ़ गयी हैं. मसलन, कश्मीरी अलगाववादियों के रिहा होने के पीछे मुख्यमंत्री की बेटी महबूबा मुफ़्ती की जिद्द की बात सामने आ रही है. सच तो यह है कि मुफ़्ती सरकार अलगाववादियों के साथ साथ पाकिस्तान के तुष्टिकरण और भाजपा का साथ जैसी अलग विचारधाराओं पर एक साथ चल रही है, जिसके कारण जम्मू कश्मीर सरकार के रूख को भाँपने में केंद्र सरकार को पसीना आ रहा है. इसी दरमियान अमेरिका के बड़े अख़बार न्यूयार्क टाइम्स में बिलकुल वक्त पर छपे एक लेख का शीर्षक काफी कुछ कहानी बयां कर देता है कि ‘कश्मीर मुद्दे के कारण भारत-पाकिस्तान केKashmir issue should be treated with more maturity, hindi article बीच एटॉमिक वॉर हो सकता है और अखबार ने यह भी आंकलन छापा है कि इस लड़ाई से भारत को ज्यादा नुक्सान होगा. हालाँकि, इस लेख में कारणों की पड़ताल नहीं की गयी है. इन तमाम मसलों को देखते हुए नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए यही ठीक रहेगा कि वह कश्मीरी पंडितों की वापसी जैसे मुद्दे उठाकर अलगाववाद को बैकफुट पर आने के लिए मजबूर करें, साथ ही साथ भाजपा सिर्फ पीडीपी के भरोसे ही न बैठी रहे, बल्कि उमर अब्दुल्ला समेत अन्य राजनैतिक धड़ों से बातचीत और अलगाववादियों में फूट डालने की रणनीति पर तेजी से कार्य करे. जरूरत पड़ने पर भाजपा अपने आरएसएस कैडर के साथ दुसरे संगठनों  का प्रयोग भी करे. भारतीय सेना के अथाह अनुशासन और संयम के कारण आज कश्मीर घाटी में आतंक पर काबू पाया जा सका है, मगर राजनैतिक उलझनों और अपरिपक्व रूख के कारण यह मुद्दा हाथ से निकल न जाए, इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा. आखिर, कश्मीर के माध्यम से भारत पर दबाव बनाने का मौका पाकिस्तान ही नहीं चीन, रूस, अमेरिका जैसी महाशक्तियां भी नहीं छोड़ेंगी और इस बात को अगर प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार नहीं समझ पाएं तो यह अभिमन्यु के चक्रव्यूह में फंसने जैसा ही होगा. वस्तुतः कश्मीर मुद्दे पर भारत की यह कमजोरी रही है कि वह चर्चा से बचने का प्रयास करता रहा है और इसे ही पाकिस्तान हथियार बनाता रहा है. इससे बेहतर क्या यह नहीं होता कि चर्चा का रूख मोड़ने की दिशा में सार्थक प्रयास किया जाता, मसलन पाक अधिकृत कश्मीरियों के जीवन-स्तर पर अधिकृत रिपोर्ट जारी करना और इससे भी महत्वपूर्ण है कश्मीरी पंडितों के मुद्दे को केंद्र बिंदु में लाना. समस्या यह है कि कहाँ तक मोदी सरकार, इस मुद्दे पर फ्रंट फूट पर खेलती, अपनी गलतियों से वह घरेलु और अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर घिरती नजर आ रही है. हालाँकि, कई मोर्चों पर भारत पाकिस्तान को घेरने में सफल रहा है, मगर गले की हड्डी का ध्यान रखना ज्यादा आवश्यक है.

– मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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