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भुट्टा, पॉप-कॉर्न और गणित, विज्ञान

Mithilesh's Pen
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दिल्ली के बाराखंबा पर अख़बार के एक दफ्तर में शाम को बैठने जाता हूँ. मेट्रो के गेट न. 5 से निकलने पर वहां बाहर एक भुट्टे वाला, भुट्टे उबालकर बेचता है. हालाँकि, भुट्टे तो बचपन से खाता रहा हूँ, लेकिन सच कहूँ तो उबले भुट्टे मैंने पहले नहीं खाए थे. एक दिन टेस्ट किया तो बेहद स्वादिष्ट लगा, नींबू और काला नमक और शायद कुछ मसाला भी लगा था. फिर तो चस्का लग गया, मात्र 20 रूपये में यह किसी भी स्नैक्स से कई गुना बेहतर विकल्प प्रतीत हुआ. एक दिन मेरी गली में कच्चे भुट्टे बेचने वाला आया तो मैंने सोचा, क्यों न बाराखंबा के स्वाद को उत्तम नगर में ट्राई किया जाय. रेट भी सस्ता था, मात्र 15 रूपये किलो में 5 भुट्टे घर ले आया. पत्नी ने कूकर में उबालकर नीम्बू के साथ पेश किया तो लगा कि तीर मार लिया है. गुणा गणित करने के बाद, बाराखंबा भुट्टे वाले के लिए मन में नकारात्मक भाव भी आये कि वह 15 रूपये की चीज को 100 रूपये में कैसे दे सकता है. आखिर, लाभ का कोई अनुपात होता है कि नहीं. लेखक जानते हैं कि जब विचारों का भूत सफर करता है तो वह आगे पीछे के कई-कई पन्नों को पलटता है. इस वाकये के कुछ दिन पहले ही जनकपुरी के मल्टीप्लेक्स में परिवार सहित बहुचर्चित फिल्म ‘बाहुबली’ देखने गया था तो छोटा भाई इंटरवल में पॉप-कॉर्न, कोल्ड ड्रिंक लेकर आया था, जिसमें केवल पॉप-कॉर्न ही 300 रूपये का था! यह आप हम सभी जानते हैं, खाते भी हैं, कोई अचरज की बात है नहीं. शायद 3 रूपये के हिसाब से 1 या 6 रूपये के 2 भुट्टों में 300 रूपये का पॉप-कॉर्न तैयार हो जाता होगा. कुछ लोग कहेंगे कि यह अतिवादी आंकलन है, परन्तु यदि इस तथ्य को हम अतिवादी कह दें तो फिर तथ्यात्मक क्या होगा? सामाजिक आर्थिक जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, देश के कुल 24.39 करोड़ परिवारों में से 17.91 परिवार ग्रामीण हैं, अर्थात शहरीकरण की रफ्तार के बावजूद देश की लगभग तीन चौथाई आबादी आज भी गांव और कस्बों में ही रहती है. इसमें भी लगभग आधी आबादी, अर्थात 48.52 फीसदी परिवार अनेक अभावों से जूझ रहे हैं. गांवों में हर तीसरा परिवार भूमिहीन है और जीवनयापन के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर है. 2.37 करोड़ परिवार एक कमरे के कच्चे घरों में रहते हैं और 51.14 फीसदी परिवार दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर रहने को मजबूर हैं. खेती पर निर्भर परिवारों की तादाद 30.10 फीसदी है. इस रिपोर्ट के आगे कहे जाने वाले आंकड़े और भी डराने वाले हैं, जिसमें चार फीसदी से भी ज्यादा परिवारों का कचरा बीनकर अथवा भीख मांग कर गुजारा करना शामिल है. तात्पर्य बिलकुल साफ़ है कि एक ओर हम चीन के आर्थिक विकास को चुनौती दे रहे हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे देश में गरीबी और अभावों का आलम अकथनीय, अकल्पनीय बनता जा रहा है. एक भुट्टे बेचने वाला रेहड़ी मजदूर, बमुश्किल 15 रूपये में 1 किलो बेचकर गुजर बसर करने को मजबूर है, वहीं दूसरी ओर कॉर्पोरेट्स उसी भुट्टे को 300 में बेच रहे हैं. रेहड़ी वाले से पहले की कड़ी यानि किसान को तो छोड़ ही दीजिये, वह तो उससे भी गया गुजरा है. छः महीनों तक खेती करता है, बरसात, ओले, तूफ़ान से बचते बचाते यदि उसके खेतों में कुछ अन्न हो भी गया तो बेहद सस्ते दामों पर वह उसे निकालने को मजबूर है, भुट्टों के हिसाब से रेट लगाएं तो शायद 5 रूपये किलो. यहाँ, उदाहरण बेशक भुट्टों का है, किन्तु अनुपात प्रत्येक फसल का वही है. विदेशों में धूम मचाती हुई मोदी सरकार ने देश में डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया, स्मार्ट सिटी, रोड सेफ्टी, इन्सुरेंस इत्यादि क्षेत्रों में निश्चित रूप से बड़ा काम करने की इच्छाशक्ति दिखाई है, किन्तु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम की इच्छाशक्ति गरीबी और किसानों की समस्याओं पर खामोश होती सी दिख रही है. आखिर ऐसी क्या मजबूरी है कि केंद्रीय कृषिमंत्री राधामोहन सिंह यह बयान देते हैं कि किसान लव-अफेयर, नपुंसकता और ऐसी ही दूसरी वजहों से आत्महत्या कर रहे हैं. दिल्ली में बैठे बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों को 5 रूपये के भुट्टे और 300 रूपये के पॉप-कॉर्न के अर्थशास्त्र को समझने में इतनी देरी क्यों लग रही है? शहरों को चमकाने वाले कर्णधारों को गाँवों का दर्द आखिर कब समझ आएगा? हाल में मूडीज इन्वेस्टर्स ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की तस्दीक की है कि अर्थव्यवस्था में ग्रामीण भारत की हिस्सेदारी निराशाजनक है. इसके अनुसार देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था चालू वित्त वर्ष 2015-16 में भी कमजोर बनी रहेगी, जो भारत सरकार व देश के बैंकों की वित्तीय साख के प्रतिकूल हो सकता है. अमेरिका के वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्‌यूट की एक रिपोर्ट भी यही कहानी कहती है कि भारत में गांवों का समुचित विकास न होने का प्रमुख कारण कृषि पर निर्भर आबादी में तेजी से वृद्धि होना है. साल 1980 से 2011 के बीच भारत की कृषक आबादी में भारी बढ़ोतरी हुई है. रिपोर्ट के मुताबिक कृषि आधारित आबादी दुनिया भर में सबसे ज्यादा भारत में ही बढ़ी है. कृषि पर निर्भर आबादी बढ़ने से इस क्षेत्र में लोगों की आय बढ़ने की बजाय घट रही है. इतना ही नहीं, गांवों में रोजगार के वैकल्पिक अवसर भी लगातार कम होते जा रहे हैं, जिससे पलायन और शहरों पर दबाव जैसी आधुनिक समस्याएं बढ़ती ही जा रही हैं. ऐसा नहीं है कि यह तमाम रिपोर्टस और आंकलन हमारे नीति-निर्माताओं के कानों तक नहीं पहुँचते होंगे, मगर चिंतनीय बात यह है कि उनके भीतर उस इच्छाशक्ति का घोर अभाव दिखता है, जो 5 रूपये, 20 रूपये और 300 रूपये के भुट्टे में फर्क को सामने ला सके. 80 फीसदी से ज्यादा सब्सिडी का भोजन करने वाले संसद में बैठने वाले महाशय, शायद इस बात से भी डर जाते होंगे कि यदि 300 रूपये का भुट्टा नहीं बेचा गया तो उनके और उनकी पार्टी के अकाउंट में हज़ार करोड़ की डोनेशन कहाँ से आएगी! क्या यह सच नहीं है कि भारी मुनाफा कमाने वाले कॉर्पोरेट्स, अपनी आय का कुछ हिस्सा घूस के रूप में नेताओं और राजनीतिक दलों को पहुंचाते हैं, जबकि बड़ा हिस्सा डकार जाते हैं. मशहूर फिल्म निर्माता शेखर कपूर ने 27 जुलाई को एक रीट्वीट किया, जिसमें ऑक्सफैम इंडिया के हवाले से कहा गया है कि देश के बिलेनियर्स के पास ही इतनी संपत्ति है कि उसे पूरे देश की गरीबी को दो बार मिटाया जा सकता है, सम्पूर्ण रूप से! देखा जाय तो यह कोई अतिश्योक्ति अलंकार भी नहीं है, बल्कि एक तथ्य है. सिर्फ इसी रिपोर्ट को क्यों लिया जाय, 2014 के आम चुनाव के पहले भी तो यही बात सीना ठोक के कही गयी थी कि ‘विदेशों में इतनी मात्रा में काला धन जमा है कि यदि उसे लाकर देशवासियों में वितरित किया जाय तो प्रत्येक नागरिक के हिस्से में 15 -15 लाख रूपये आएंगे! यह अलग बात है कि बाद में इन बातों को जुमला कहकर हंसी में उड़ा दिया गया. वैसे भी, हंसी में हम उन सभी बातों को उड़ा देते हैं, जो राष्ट्रहित में होती हैं, जो नागरिक हित में होती हैं. संयोगवश, 26 जुलाई 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक ट्वीट किया था और Mygov.in के लिए देशवासियों से राय मांगी थी कि हम यंग माइंडस को किस प्रकार साइंस और मैथेमेटिक्स के प्रति उत्सुकता पैदा कर सकते हैं. भई! हमारी तो सपाट राय है कि यदि देश के युवाओं को 5 रूपये के भुट्टों और 300 रूपये के पॉप-कॉर्न बनने की प्रक्रिया को सटीकता से समझा दिया गया, तो न केवल गणितीय उत्सुकता पैदा होगी युवाओं में, बल्कि आत्महत्या करते ‘नपुंसकों’ का साइंटिफिक इलाज भी मिल जाएगा! शर्त बस इतनी सी है कि इस गणितीय सिद्धांत को ‘जुमला’ न कहा जाय!

– मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.

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