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राष्ट्रगान और राष्ट्रवादिता

Mithilesh's Pen
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जन गण मन ‘अधिनायक’ जय हे … बचपन से इसे हम सब गाते रहे हैं और इसकी धुन कहीं सुन भी लें तो अपने आप सावधान की मुद्रा बन जाती है. दुःख की बात यह है कि हृदय और आत्मा तक घुस चुके इस गीत पर भी विवाद खड़ा करने से लोग खुद को रोक नहीं पाते हैं. इस बार राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह ने भारत के राष्ट्र गान पर सवाल उठाकर एक पुरानी बहस को फिर छेड़ दिया है. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह ने राजस्थान विश्वविद्यालय के 26वें दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि ‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ में अधिनायक किसके लिए है. इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए त्रिपुरा के राजयपाल भी इसमें कूद पड़े. त्रिपुरा के

राज्यपाल तथागत रॉय ने सोशल मीडिया पर उनकी इस मांग का विरोध करते हुए कहा कि अगर राष्ट्रगान में कुछ गलत था तो इसमें बदलाव अब क्यों होना चाहिए? आखिर आजादी के 67 सालों बाद ऐसी आपत्ति का क्या मतलब है? इन दोनों महामहिम राज्यपालों की बात सही या गलत हो सकती है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में इस मुद्दे पर चर्चा की आवश्यकता है? हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि इस विषय पर पहली बार चर्चा छिड़ी है, बल्कि इसके शुरूआती दौर से ही इसे कई बार विवादित बताने की कोशिशें हो चुकी हैं. 2004 में साध्वी ऋतंभरा ने भी ‘जन गण मन अधिनायक जय हे’ को ‘गद्दारी का गाना’ तक कह दिया था, तो दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग ऐसी कोशिशें कई बार कर चुके हैं. इस सन्दर्भ में इसके पिछले इतिहास पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है. यह गाना पहली बार 27 दिसंबर 1911 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के दूसरे दिन गाया गया था. कई पत्रिकाओं में यह बात साफ़ तरीके से अगले दिन छापी भी गई. संयोगवश, यही वह साल था जब अंग्रेज सम्राट जॉर्ज पंचम अपनी पत्नी के साथ भारत के दौरे पर आए हुए थे. बस सारी कन्फ्यूजन यहीं से पैदा हुई, या कहा जाय कि अंग्रेजी सत्ता ने इस प्रकार की कन्फ्यूजन जानबूझकर पैदा की, तो ज्यादा उचित होगा और इस कार्य में चाटुकार अख़बारों ने अंग्रेजी सत्ता प्रतिष्ठान का साथ भी दिया शायद. इसके साथ यह बात भी जोड़नी ठीक रहेगी कि उस दौर की आक्रामक राष्ट्रवादिता से गुरुदेव कहे जाने वाले रविन्द्रनाथ टैगोर का कोई ख़ास नाता नहीं था. उनके अनुसार, सच्चा राष्ट्रवादी वही हो सकता है जो  दूसरों के प्रति आक्रामक न हो. एक कारण यह भी हो सकता है, रविंद्रनाथ टैगोर के खिलाफ दुष्प्रचार किये जाने को लेकर. देश में कभी कभी ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की जाती है कि यदि किसी मुसलमान को, पाकिस्तानी को, विरोधी को तुम गाली नहीं दे सकते तो शायद राष्ट्रवादी कहलाने का हक़ भी खो जाता है. बहुत संभव है कि इस संकुचित विचार के शिकार बने हों, रवीन्द्रनाथ टैगोर और उनके राष्ट्रगान को भी इसी राष्ट्रवादिता के पैमाने से तोला गया हो. वैसे भी, इस गीत की प्रासंगिकता आज भी इसीलिए बनी हुई है क्योंकि इसमें गाली गलौच या आक्रामकता की बजाय भारत के गौरव का गान किया गया है. ऐसे में एकाध शब्दों की मनमानी व्याख्या उचित कैसे कही जा सकती है? हालाँकि, रविंद्रनाथ टैगोर भी इस बात से बेहद आहत थे कि उनके ऊपर इस प्रकार का आरोप लगाया गया कि उन्होंने अंग्रेजी शासन की प्रशंसा में इसकी रचना की. उनका दर्द छलका भी और स्पष्टीकरण भी आया था. टैगोर ने 1912 में ही स्पष्ट कर दिया कि गाने में वर्णित भारत भाग्य विधाता के केवल दो ही मतलब हो सकते हैं: देश की जनता, या फिर सर्वशक्तिमान ऊपर वाला—चाहे उसे भगवान कहें, चाहे कुछ और. टैगोर ने इसे खारिज़ करते हुए साल 1939 में एक पत्र लिखा, ”मैं उन लोगों को जवाब देना अपनी बेइज्जती समझूँगा जो मुझे इस मूर्खता के लायक समझते हैं.” यदि अतिवादिता करते हुए टैगोर की इस सफाई को खारिज भी कर दें तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोष की आज़ाद हिन्द फ़ौज ने भी इस गाने को स्वीकृत किया और कई बार गाय भी था. इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता से पहले 1937 में प्रांतों में पहली चुनी हुई सरकारों ने भी इसे अपनाया. स्वतंत्र भारत में काफी चिंतन-मनन के बाद इसे 1950 में अपनाया गया. अब एक जरा सी ग़लतफ़हमी के लिए, जो कहीं न कहीं अंग्रेजी राज द्वारा पैदा की गयी हो सकती है, उस पर आज विवाद खड़ा करना और पिछले सभी लोगों, जिन्होंने इसे स्वीकृत किया उनकी देशभक्ति या बौद्धिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाना कतई उचित नहीं रहेगा. उम्मीद की जानी चाहिए कि गैर जरूरी विवादों से परे हटकर स्वच्छ प्रशासन और विकास के मुद्दे पर ध्यान केंद्रित किया जाय और यदि वास्तव में इतिहास में कोई गलत तथ्य चल रहा है तो उसे दूर करने के लिए गंभीर प्रयास किये जाएँ, कमेटियां गठित की जाएँ, न कि बयानबाजी करके अपना और दूसरों का मजाक बनाया जाय. इसके साथ नरेंद्र मोदी सरकार पर पहले से ही शिक्षा का भगवाकरण करने के आरोप लग रहे हैं और यह आरोप नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन तक लगा चुके हैं. मानव संशाधन मंत्री स्मृति ईरानी पर पहले ही उच्च शिक्षण संस्थानों के निदेशकों से विवाद सामने आ चुके हैं, ऐसे में राष्ट्रगान जैसे संवेदनशील मामले में संशोधन का विषय उठाना राजनीतिक रूप से भी मूर्खतापूर्ण कार्य ही होगा. यह कुछ ऐसा ही है कि आप ज़िन्दगी भर किसी एक व्यक्ति को ‘पापा’ कहते रहो और अचानक कोई आपसे आकर यह कहे कि तुम्हारे पापा यह नहीं हैं, बल्कि कोई दूसरा है. राष्ट्रगान, निश्चित रूप से भारतवासियों के अंतर्मन से जुड़ा हुआ विषय है और उम्मीद की जानी चाहिए कि लगभग 65 सालों के लम्बे इन्तेजार के बाद बहुमत प्राप्त करने में सफल रहने वाली भाजपा इस बहुमत को आसानी से न खोये. इसके बजाय, वह तमाम दूसरों मुद्दों पर ख़ामोशी से कार्य करती रही तो शायद उसके अपने अजेंडे पूरे करने का भी समय आये. राजनीति में शायद इसी को लोहा गरम होना भी कहते हैं. वगैर, लोहा गरम हुए यदि चोट की जाएगी तो उसका विपरीत प्रभाव ही पड़ेगा और हाथ ज़ख़्मी होने की सम्भावना भी बढ़ेगी ही.

– मिथिलेश, नई दिल्ली.

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