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मच्छरों से ‘सहानुभूति’ – Hindi poem based on mosquito and sympathy by mithilesh

Mithilesh's Pen
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डर लगता है
मुझे ही नहीं
सबको
क्योंकि, ऐसा कोई बचा नहीं
‘मच्छर’ ने जिसको डंसा नहीं
जी हाँ!
एक ऐसा प्राणी
जो कभी भेदभाव नहीं करता
अमीर-गरीब, युवा-बुजुर्ग, ज्ञानी-मूर्ख पर
डंक का एक समान प्रहार करता है
शाम होते ही इनसे बचने की जुगत में
लग जाते हैं सब
दरवाजे, खिड़कियाँ बंद
क्वायल, हिट, इंसेक्ट किलर, ओडोमॉस
और जाने क्या-क्या उपाय
करते हैं सब
भई! मैं तो मच्छरदानी लगाता हूँ
कुछ हद तक ही सही
सुकून की नींद फ़रमाता हूँ
पर घुस जाते हैं उसमें भी
झुण्ड में,
जैसे पागल भीड़ खुद ही सजा देने
सड़कों पर आती हो
जैसे, हमारे जेलों में भी हत्याएं हो जाती हैं
वैसे, मच्छरदानी भी बचाव में सक्षम नहीं है
घुस ही जाते हैं दो-चार, या दस-बारह
रात के मरियल मच्छर
हो जाते हैं सुबह तक ‘मुटल्ले’
नींद खुलते ही क्रोध से आँखें
हो जाती हैं ‘लाल’
उनका वध करता हूँ रोज
लेकिन, आज सुबह उन मच्छरों से
‘सहानुभूति’ हो आयी,
सोचा, इस ब्रह्माण्ड के ‘साइक्लिक’ प्रोसेस में
उनका कुछ तो योगदान होगा
जीव-विज्ञान पढ़ी पत्नी ने बताया
मच्छरों के अण्डों को ‘मछलियाँ’ खाती हैं
इंजिनियर भाई ने बताया
मच्छरों के ऊपर तमाम उद्योगपति, डॉक्टर और
निगम के कर्मचारी रोजगार पाते हैं
पर मन कुछ और ढूंढ रहा था
मच्छरों के इतने योगदान भर से संतुष्ट नहीं हो रहा था
तभी पत्नी चिल्लाई
वह देखिये, पैर पर मच्छर बैठा है
मारिये,
हम ‘डर’ गए
डेंगू, चिकन गुनिया और ढेरों ख्याल
मानस-पटल पर तैर गए
हाँ! यही है इस ब्रह्माण्ड के साइक्लिक प्रोसेस में
मच्छरों का ‘असली योगदान’
‘डर’
यूं तो किसी से भी डरता नहीं है ‘इंसान’
जी हाँ! भगवान से भी नहीं
किन्तु, मच्छरों से उसको डर होता है
मन प्रफुल्लित हो गया
मच्छरों के बारे में
मेरा ‘शोध’ सफल हो गया !!
– मिथिलेश ‘अनभिज्ञ’

Hindi poem based on mosquito and sympathy by mithilesh

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