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राजनीति बनाम आम मानसिकता – Arvind kejriwal is not a politician afterall

Mithilesh's Pen
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अरविन्द केजरीवाल और उनकी तथाकथित नैतिकता के ऊपर खूब लिखा-पढ़ा जा रहा है, लेकिन मेरी तरह और भी कई लोगों का स्पष्ट मानना है कि अब वह राजनीति में हैं और उन्हें येन केन प्रकारेण अपनी सत्ता कायम रखनी ही होगी. किन्तु, जब उनके क्रियाकलापों को राजनीति के पैमाने पर तोलने बैठते हैं, तो वह बड़े मजबूर और असफल नजर आते हैं. आइये, एक-एक करके उनकी अपरिपक्व राजनीति को समझने की कोशिश करते हैं. आपको हालिया लोकसभा चुनाव के पहले नरेंद्र मोदी का वह इंटरव्यू (इंडिया टीवी) याद होगा, जब उन्होंने रजत शर्मा के जनता की आशाओं वाले प्रश्न पर स्पष्ट कहा था, भाई! ऐसा माहौल आप लोग क्यों बना रहे हो कि मोदी आएगा और सभी swaraj-book-written-by-arvind-kejriwalभारतीयों के दरवाजों के आगे एक-एक रोल्स रॉयस खड़ी कर देगा. मतलब, मोदी सपने तो बढ़ा रहे थे, अपेक्षाएं भी बढ़ा रहे थे, किन्तु स्पष्ट रूप से वादे करने से वह बच रहे थे. हाँ! काले धन इत्यादि पर उन्होंने जरूर कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन इस मामले पर उनकी हुई छीछालेदर हम सबने देखा. अरविन्द केजरीवाल यहाँ पर बेहद घिरे हुए हैं, और उन्होंने एक नहीं कइयों ऐसे सीधे वादे किये हैं, जो पूरे तो क्या होंगे, हाँ वह उनकी रोज किरकिरी जरूर कराते रहेंगे. राजनीति का दूसरा प्रमुख चरित्र यह होता है कि यहाँ कोई स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होता है. अरविन्द केजरीवाल यहाँ दोनों पैमानों पर फेल होते नजर आ रहे हैं. उन्होंने पहले के साथियों के आलावा योगेन्द्र-प्रशांत से दुश्मनी तो की ही है, किन्तु उस से घातक यह बात कि उन्होंने राजनीति में दोस्त बना लिए हैं. जरा सोचकर देखिये, कुमार विश्वास, संजय सिंह, आशुतोष और आशीष खेतान जैसे लोग क्या देश-सेवा/ पार्टी सेवा के लिए अरविन्द के प्रति वफादार हैं? सच तो यह है कि जिस प्रकार अरविन्द दिल्ली के तमाम दबंग विधायकों को सरकारी समितियों और आयोगों में पदोन्नत कर रहे हैं, उसी प्रकार साथ देने वाले इन दोस्त ‘नेताओं’ को उन्हें राज्यसभा में भेजना ही पड़ेगा. उनके बदजुबानी वाले हालिया स्टिंग में वह बड़ी ईमानदारी से कहते हैं कि जिन लोगों को कम अनुभवी कहा जा रहा है, वह मेरे प्योर आदमी हैं. अब राजनीति में कौन प्योर है और कौन अशुद्ध, यह केजरीवाल समझ नहीं पा रहे हैं या ऐसा कहना उनकी मजबूरी बन गयी है. इस पूरे प्रकरण में उन्होंने बड़ी खूबसूरती से अपने राजनीतिक जूनियर्स का अहसान लिया है, जिसकी भारी कीमत उन्हें चुकानी ही पड़ेगी. तीसरी बात, राजनीतिक छवि! भारतीय लोकतंत्र में यदि किसी राजनेता को लम्बी पारी खेलनी हो तो, उसे ‘तानाशाह’ की छवि से बचना ही होता है. दुर्भाग्य यह है कि अरविन्द के साथ यह छवि एक के बाद एक वाकयों से पुख्ता होती जा रही है. अन्ना हज़ारे, किरण बेदी, राजेंद्र सिंह, संतोष हेगड़े, शाज़िया इल्मी, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, अंजलि दमानिया, मेधा पाटेकर और भी न जाने कितने ऐसे लोग, जो एक बड़ी छवि रखते हैं और इन सबका अरविन्द को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान है, लेकिन बेहद छोटे अंतराल पर अरविन्द को यह लोग एक के बाद एक तानाशाह साबित करते गए हैं. और उससे भी बड़ी यह कि यह सिलसिला रुकता नजर नहीं आ रहा है. हाल में भी गुंडे-विधायक, बाउंसर्स, बदजुबानी, तानाशाह जैसे शब्द केजरीवाल से चिपक गए हैं. अपने निष्कासन से पहले तक प्रशांत भूषण के साथ मिलकर योगेन्द्र यादव् ने अपनी मीठी जुबान से केजरीवाल को जबरदस्त तरीके से एक्सपोज करने की कोशिश की है.

हालाँकि, केजरीवाल समर्थक उनकी तुलना भाजपा के नरेंद्र मोदी और आडवाणी प्रकरण से कर रहे हैं, किन्तु दोनों स्थितियों में जबरदस्त फर्क है. आडवाणी तब तक 86 साल के हो चुके थे, और आम कार्यकर्त्ता से लेकर संघ और दुसरे तमाम नेता इस बुजुर्ग महारथी से किनारा कसने का मन बना चुके थे. आडवाणी को किनारा करने के बाद भाजपा में स्थितियों को मोदी ने संभाल लिया और अपने धुर विरोधियों सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह इत्यादि को बेहद महत्वपूर्ण मंत्रालय देकर संघ को भी खुश कर लिया. modi-mantraअब उनकी छवि प्रशासनिक रूप से सख्ती की है और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़ाई की बनी हुई है, लेकिन आतंरिक रूप से उन्हें तानाशाह नहीं माना जा रहा है क्योंकि सभी धड़ों को उन्होंने साध लिया है, यहाँ तक कि अपनी छवि ख़राब करने वाले हिंदुत्व के समर्थक कट्टर नेताओं के बोल-बचनों को भी वह दम साधकर सह रहे हैं और उनकी इसी मजबूरी को अमेरिकी राष्ट्रपति तक निशाने पर ले चुके हैं. अरविन्द केजरीवाल के सन्दर्भ में अब वह अकेले पड़ चुके हैं, नए, स्वार्थी और अनुभवहीन लड़कों से घिरे हुए. जनता से सीधा वादा करके, राजनीतिक दोस्त और दुश्मन बनाकर और तानाशाह की छवि निर्मित करके अरविन्द केजरीवाल फंस चुके हैं. किसी दूर-दराज के पूर्ण राज्य जैसे असम, उड़ीसा, बिहार इत्यादि में वह थोड़ी-बहुत राजनीति कर भी लेते, किन्तु दिल्ली जैसे केंद्रशासित प्रदेश में उनकी सरकार 5 साल चल जाएगी, इस बात में संदेह है. आपको याद होगा, अभी एक सम्मन पर केजरीवाल भागे-भागे कैसे एक निचली अदालत में पहुंचे थे. केंद्र के अतिरिक्त, कोर्ट-सुप्रीम कोर्ट, मीडिया और उस से बढ़कर सोशल मीडिया पर सक्रीय युवा उनकी धज्जियां उड़ाने में कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे. उस पर पडोसी राज्यों में भाजपा सरकार से अब वह उस नैतिक बल से मुकाबला नहीं कर पाएंगे, जैसा वह पहले करते थे, उस नैतिक बल की तिलांजलि तो वह बहुत पहले दे चुके हैं, जब कांग्रेस का समर्थन लेकर, फिर छोड़कर, फिर लेने की तिकड़म बना रहे थे. रही सही कसर, वह बाहुबली विधायक पूरी कर देंगे, जिन्हें प्रशांत भूषण गुंडे कह रहे हैं. उन 67 विधायकों में से 35 से ज्यादा ऐसे लोग हैं, जो भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय राजनीति की घुट्टी पीकर आये हैं. अब या तो अरविन्द उनके आगे झुकेंगे और वह विधायक अपनी मनमर्जी करेंगे, लूट-खसोट करेंगे अथवा अरविन्द के खिलाफ बड़ी बगावत तय है. आप कहेंगे, इन्तेजार किस बात का है, तो राजनीति में तमाम चीजों पर भारी जनता में आपकी लोकप्रियता होती है और अरविन्द की लोकप्रियता अभी बची हुई है, लेकिन उस बेपनाह लोकप्रियता में यादव-भूषण प्रकरण से बड़ी सेंध लग चुकी है. सच पूछिये तो अरविन्द की मानसिकता अभी राजनीतिक हो नहीं पायी है, वह किसी आम मानसिकता के व्यक्ति की तरह बदहवास हो गए हैं, जो कम से कम राजनीति तो नहीं ही कर रहा है. यादव-भूषण जैसे एकाध काण्ड और, फिर अरविन्द की राजनीति का …… !!! खुद ही अंदाजा लगा लीजिये!

– मिथिलेश कुमार सिंह

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